
उद्धव और राज ठाकरे की एकता: हिंदी थोपने के खिलाफ एक बड़ा कदम
उद्धव और राज ठाकरे की एकता: हिंदी थोपने के खिलाफ एक बड़ा कदम
हाल ही में महाराष्ट्र में प्राथमिक शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य करने के सरकारी कदम के खिलाफ उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे एक साथ आ गए हैं। यह लगभग दो दशकों में पहली बार है जब ये दोनों चचेरे भाई किसी बड़े राजनीतिक मुद्दे पर एक मंच पर आए हैं। उनके इस कदम को मराठी अस्मिता और भाषा संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण आंदोलन के रूप में देखा जा रहा है।
दोनों ठाकरे बंधुओं ने 5 जुलाई को मुंबई में एक बड़े विरोध मार्च की घोषणा की है, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों के शामिल होने की उम्मीद है। पहले दोनों गुट अलग-अलग प्रदर्शन करने की योजना बना रहे थे, लेकिन मराठी पहचान के मुद्दे पर एक मजबूत संदेश देने के लिए एकजुट होने का फैसला किया। शिवसेना (यूबीटी) के नेता संजय राउत ने इस एकजुटता की पुष्टि करते हुए कहा कि यह विरोध प्राथमिक स्कूलों में हिंदी थोपने के खिलाफ है।
शरद पवार का समर्थन और राजनीतिक निहितार्थ
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार गुट) के प्रमुख शरद पवार ने भी इस मुद्दे पर उद्धव और राज ठाकरे का समर्थन किया है। पवार ने कहा है कि पहली से चौथी कक्षा तक हिंदी थोपना सही नहीं है, हालांकि पांचवीं कक्षा के बाद हिंदी सीखना छात्रों के हित में हो सकता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि महाराष्ट्र के लोग हिंदी विरोधी नहीं हैं, लेकिन किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाना चाहिए और मातृभाषा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। पवार ने ठाकरे बंधुओं के विरोध मार्च को मातृभाषा में शिक्षा पर जोर देने के लिए महत्वपूर्ण बताया है।
यह एकजुटता महाराष्ट्र की राजनीति में गहरे राजनीतिक निहितार्थ रखती है। यह न केवल ठाकरे परिवार के बीच की दशकों पुरानी दरार को पाटती है, बल्कि आने वाले चुनावों में भी इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। मराठी भाषा और संस्कृति के मुद्दे पर यह एकजुटता महा विकास अघाड़ी (MVA) गठबंधन को और मजबूत कर सकती है, खासकर जब अगले विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं।
विवाद का कारण और सरकार का रुख
यह पूरा विवाद महाराष्ट्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत स्कूलों में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा के रूप में लागू करने के निर्णय से शुरू हुआ। विरोधियों का तर्क है कि यह कदम मराठी भाषा और महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान को कमजोर करेगा।
हालांकि, सरकार ने बाद में स्पष्ट किया है कि हिंदी को अनिवार्य नहीं, बल्कि वैकल्पिक बनाया गया है और छात्र अपनी पसंद की तीसरी भाषा चुन सकते हैं। उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी यह दोहराया है कि मराठी हर हाल में अनिवार्य रहेगी और हिंदी केवल एक विकल्प के तौर पर है। इसके बावजूद, विपक्षी दल अभी भी सरकारी आदेश में अस्पष्टता का आरोप लगा रहे हैं और उनका कहना है कि यह कदम छात्रों पर अनावश्यक बोझ डालेगा।
यह देखना दिलचस्प होगा कि यह आंदोलन महाराष्ट्र में भाषा नीति और शिक्षा प्रणाली पर क्या प्रभाव डालता है।
हिंदी थोपने के विरोध पर सरकार का स्पष्टीकरण: क्या है सच?
महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने के आरोप पर स्पष्टीकरण दिया है। सरकार का कहना है कि उन्होंने हिंदी को अनिवार्य नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक तीसरी भाषा के रूप में पेश किया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत, छात्रों को अपनी पसंद की कोई भी भारतीय भाषा चुनने का विकल्प दिया गया है, जिसमें हिंदी भी शामिल है।
सरकार के मुख्य तर्क:
विकल्प की स्वतंत्रता: सरकार का कहना है कि छात्रों को तीसरी भाषा के रूप में हिंदी, संस्कृत, गुजराती, कन्नड़ या कोई अन्य भारतीय भाषा चुनने की पूरी स्वतंत्रता है। हिंदी थोपी नहीं जा रही है।
मराठी की प्राथमिकता: उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने साफ तौर पर कहा है कि मराठी भाषा अनिवार्य बनी रहेगी और इसकी स्थिति को कोई खतरा नहीं है। उनका दावा है कि मराठी माध्यम के स्कूलों में भी मराठी पहली भाषा के रूप में पढ़ाई जाएगी, जबकि हिंदी सिर्फ एक विकल्प के तौर पर मौजूद होगी।
NEP 2020 का अनुपालन: सरकार का तर्क है कि वे NEP 2020 के प्रावधानों का पालन कर रहे हैं, जो त्रि-भाषा फॉर्मूले की वकालत करता है। यह फॉर्मूला छात्रों को बहुभाषी बनाने और उन्हें देश की विभिन्न भाषाओं से जोड़ने पर जोर देता है।
विपक्ष और प्रदर्शनकारियों की चिंताएँ:
हालांकि, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे जैसे विपक्षी नेताओं का कहना है कि सरकारी आदेश में अभी भी अस्पष्टता है। उनकी मुख्य चिंताएँ ये हैं:
- अप्रत्यक्ष थोपना: विरोधियों का आरोप है कि भले ही सरकार इसे ‘वैकल्पिक’ कह रही हो, लेकिन यह अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी को बढ़ावा देने और अंततः इसे अनिवार्य बनाने का प्रयास हो सकता है।
- मराठी की उपेक्षा का डर: उन्हें डर है कि हिंदी को एक मजबूत विकल्प के रूप में पेश करने से मराठी भाषा की पढ़ाई और उसके महत्व पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
- दबाव की राजनीति: ठाकरे बंधुओं का मानना है कि यह केंद्र सरकार द्वारा राज्यों पर हिंदी थोपने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा है।
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