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जाति और इंसानियत का फर्क”

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जब एक बच्चा पैदा होता है, तो वह रोता है — बिना जाति के, बिना धर्म के।
जब एक इंसान मरता है, तो उसे जलाया या दफनाया जाता है — उसकी जाति पूछकर नहीं।

तो फिर बीच की ज़िंदगी में हम जाति को इतना बड़ा क्यों बना देते हैं कि इंसानियत पीछे छूट जाती है?

जाति: एक परंपरा, जो अब बोझ बन चुकी है

भारत में जाति व्यवस्था सदियों पुरानी है। कभी यह समाज को काम के आधार पर बांटने के लिए बनाई गई थी, लेकिन आज यह भेदभाव और असमानता का ज़रिया बन चुकी है।

कड़वा सच (Bitter Truth):

“आज भी गाँव में किसी नीची जाति के बच्चे के हाथ से पानी पीने पर कुएं को शुद्ध किया जाता है,
लेकिन मंदिर में सोने की मूर्ति को करोड़ों में खरीदा जाता है — उसे बनाने वाले कारीगर की जाति कोई नहीं पूछता।”

हमने इंसान को जाति के तराजू में तौला, और इंसानियत को फुटपाथ पर छोड़ दिया

अब वक्त है सवाल उठाने का:

नया रास्ता: इंसान को इंसान की नजर से देखो

जाति को पहचान की तरह नहीं, बीती हुई गलती की तरह देखो।
इंसानियत को धर्म बनाओ, और उस पर अमल करो।

 “स्वर्ग गया इंसान”, न कि “ब्राह्मण” या “शूद्र”।

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